Thursday, September 11, 2025

"दिमाग की आंखें खोलना: पूर्वाग्रहों से मुक्त सोच की ओर एक विवेकशील यात्रा | Awakening the Mind’s Eye: A Reflective Journey Beyond Bias and Illusion"



दिमाग की आंखें खोलना

पूर्वाग्रहों के पर्दे हटाकर सच्चाई की ओर...

(मनोज भट्ट जी की मूल रचना पर आधारित विस्तृत विश्लेषण)

     "मन की आंखें खोल रे भाया..." , यह पुकार आज के भारत की सबसे ज़रूरी चेतावनी है। जब सूचना की बाढ़ में सच्चाई डूब रही हो, और तथाकथित शिक्षित वर्ग भी भ्रम और पूर्वाग्रहों का शिकार हो रहा हो, तब केवल आंखें खोलना पर्याप्त नहीं। हमें दिमाग की आंखें खोलनी होंगी, यानी विवेक, तर्क और आत्मनिरीक्षण के माध्यम से देखना होगा।

सूचना युग में भ्रम की परतें

    भारत आज दुनिया के सबसे बड़े डिजिटल उपभोक्ता देशों में शामिल है। लेकिन यह डिजिटल विस्तार जितना तेज़ है, उतना ही खतरनाक भी, यदि विवेक और मीडिया साक्षरता साथ न हो।

     2025 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या लगभग 1.46 अरब है, जिनमें से 806 मिलियन लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं। इनमें से 750 मिलियन उपयोगकर्ता मोबाइल इंटरनेट पर निर्भर हैं, और प्रति व्यक्ति औसतन 20 GB डेटा हर महीने उपयोग किया जाता है। 

      सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं की संख्या भी 491 मिलियन तक पहुंच चुकी है। यह दर्शाता है कि भारत एक डिजिटल महासागर बन चुका है, लेकिन क्या हम इस महासागर में दिशा जानते हैं ?

शिक्षित वर्ग और पूर्वाग्रह: अदृश्य बीमारी

      मनोज जी ने जिस "तथाकथित शिक्षित वर्ग" की बात की है, वह आज सबसे अधिक सूचना का उपभोग करता है, लेकिन सबसे कम आत्मनिरीक्षण करता है। यह वर्ग अक्सर अपनी पसंदीदा विचारधारा, चैनल या सोशल मीडिया पेज से ही सच्चाई को परिभाषित करता है।

      एक अध्ययन के अनुसार, भारत में फैली गलत सूचनाओं में से 46% राजनीतिक, 33.6% सामान्य और 16.8% धार्मिक प्रकृति की होती हैं। 

      चिंताजनक बात यह है कि शिक्षित वर्ग भी बिना सत्यापन के सूचनाओं को साझा करने की प्रवृत्ति रखता है, जिससे लोकतंत्र, सामाजिक सौहार्द और जनमत निर्माण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

आत्मनिरीक्षण: सच्चाई की खोज की पहली सीढ़ी

     जब हम अपने विचारों को चुनौती देना शुरू करते हैं, तब ही हम सच्चाई की ओर बढ़ते हैं। आत्मनिरीक्षण का अर्थ है...
  • अपने स्रोतों की समीक्षा करना  
  • अपने पूर्वाग्रहों को पहचानना  
  • हर सूचना को तर्क की कसौटी पर कसना  
यह प्रक्रिया कठिन है, लेकिन यही वह मार्ग है जो हमें भ्रम से बाहर निकालता है।

सोच की स्वतंत्रता और विवेक की जागरूकता

       आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है, सोच की स्वतंत्रता और विवेक की जागरूकता। यह तभी संभव है जब हम हर सूचना को जांचें, परखें और संदर्भ में समझें; बहस और संवाद को खुले मन से स्वीकारें; और मीडिया साक्षरता को जीवनशैली का हिस्सा बनाएं।

     भारत में मीडिया साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए कई पहलें चल रही हैं। 

उदाहरणस्वरूप...
  • FactShala एक पहल है जिसे Internews और Google ने मिलकर शुरू किया है, जो ग्रामीण भारत में मीडिया साक्षरता बढ़ा रही है। 
  • IGNOU ने मीडिया और सूचना साक्षरता पर स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम शुरू किया है। 
  • NCERT–CIET स्कूल स्तर पर मीडिया शिक्षा के लिए संसाधन विकसित कर रहा है। वहीं Digital Saksharta Abhiyan भारत सरकार की योजना, जो ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देती है।  
      इन पहलों से स्पष्ट है कि भारत में मीडिया साक्षरता को लेकर प्रयास हो रहे हैं, लेकिन इनका विस्तार और प्रभाव अभी सीमित है।

वर्तमान उदाहरण

                    भ्रम बनाम सच्चाई
  1. कोविड-19 महामारी के दौरान अफवाहों ने वैक्सीन विरोध, घरेलू उपचारों और सामाजिक तनाव को बढ़ावा दिया।  
  2. राजनीतिक प्रचार में मॉर्फ्ड वीडियो, झूठे बयान और ट्रोलिंग आम हो गई है।  
  3. धार्मिक मुद्दों पर बिना संदर्भ के वायरल संदेशों ने कई बार हिंसा को जन्म दिया।  
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि केवल आंखों से देखना पर्याप्त नहीं, हमें विवेक से देखना होगा

शिक्षण और सुधार की दिशा

     एक शोध में पाया गया कि बिहार के 583 गांवों में 13,500 छात्रों को मीडिया साक्षरता सिखाने के बाद, वे झूठी सूचनाओं को पहचानने में अधिक सक्षम हुए और उनके माता-पिता पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। 

    यह दर्शाता है कि सही शिक्षा से पूर्वाग्रहों को चुनौती दी जा सकती है।

समाधान की दिशा: विवेकशील समाज की ओर

     मनोज जी की बातों को आगे बढ़ाते हुए, हम कुछ ठोस कदम सुझा सकते हैं:

  • मीडिया साक्षरता को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए  
  • सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तथ्य-जांच टूल्स को अनिवार्य किया जाए  
  • संवाद और बहस को प्रोत्साहित किया जाए, जहां विरोध भी सम्मानपूर्वक हो  
  • आत्मचिंतन और ध्यान को जीवनशैली का हिस्सा बनाया जाए  
      अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि 

     "दिमाग की आंखें खोलना" केवल एक रूपक नहीं, बल्कि आज के समय की पुकार है। जब हम अपनी सोच को चुनौती देना शुरू करेंगे, तभी हम सच्चाई की ओर बढ़ेंगे। 

      यह यात्रा कठिन हो सकती है, लेकिन यही वह मार्ग है जो हमें एक विवेकशील, स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज की ओर ले जाएगा।

     मनोज जी की यह रचना न केवल एक चेतावनी है, बल्कि एक आह्वान भी, कि हम सब मिलकर अपने भीतर की आंखें खोलें और अपने समय की सच्ची तस्वीर देखें।

      यह लेख “रिश्तों का ताना-बाना” ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। परिवार, समाज और मन के रिश्तों की बातों के लिए पढ़ते रहें:

https://manojbhatt63.blogspot.com 

पढ़ने के लिए धन्यवाद...🙏
पुनर्प्रस्तुति -- गायत्री भट्ट 

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